गांवों से ही गुजरता है आत्मनिर्भरता का रास्ता
ग्रामीण समाज भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार है। यह बात हजारों-लाखों बार कही-सुनी जा चुकी है कि भारत गांवों का देश है अथवा देश की आत्मा गांवों में बसती है। आज भी देश की करीब सत्तर फ़ीसदी आबादी गांवों में ही रहती है। इसके साथ यह भी बड़ा सत्य है कि ग्रामीण भारत को समर्थ बनाए बिना देश की समृद्धि संभव नहीं है।
गांधी दर्शन में गांवों की समृद्धि की पुरजोर वकालत की गई है मगर उस पर अमल नहीं हो पाया। अब फिर देश के प्रधानमंत्री जिस आत्मनिर्भर भारत का स्वप्न देख रहे हैं वह कदाचित ‘स्मार्ट विलेज’ से ही संभव हो सकेगा। इस बात की पुष्टि तो भावी समय ही करेगा कि कोरोना राहत पैकेज से ग्राम-उन्नयन का स्वप्न कहां तक साकार हो पाएगा।
विगत कुछ दशकों में देश में शहरीकरण का ग्राफ बहुत तेजी से बढ़ा है। शिक्षा, चिकित्सा और रोजगार जैसी सुविधाओं की चाह में एक बड़ी भीड़ गांवों से निकलकर शहरों की तरफ चली जा रही है। नगरों-महानगरों में उनको रोजगार तो उपलब्ध हो रहा है मगर उनके रहवास के लिए निर्धारित मानकों के अनुसार अनुकूल स्थितियां नहीं मिल पाती है। विवशता में गांवों से आए हुए मजदूर तबके को कच्ची बस्तियों की अस्वच्छ परिस्थितियों में जीवन यापन करना पड़ता है।

कोरोना संकट के दौरान ट्रकों, बसों, रेलगाड़ियों में तथा पैदल चलकर अपने घरों की तरफ लौटने के लिए आतुर मजदूर तबके की पीड़ा को समझते हुए जब हम इस त्रासद स्थिति के मूल कारणों की तरफ गौर करते हैं तो हमें सबसे बड़ा कारण रोजगार के लिए शहरों की तरफ पलायन नजर आता है।
आजाद भारत की यह एक बड़ी त्रासदी है कि विकास की दौड़ में गांव उपेक्षित हो गए हैं। बहुतेरी बातों, घोषणाओं और दावों के बावजूद यह कड़वी सच्चाई है कि देश के गांव-देहात अभी तक बिजली, पानी सड़क, चिकित्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
![गांवों से ही गुजरता है आत्मनिर्भरता का रास्ता : Hemmano Guest Column : मदन गोपाल लढा [2020]](https://i1.wp.com/www.hemmano.com/wp-content/uploads/2020/05/crop-0-0-510-720-0-old-man-4800462_960_720.jpg?resize=188%2C265&ssl=1)
यह खेदजनक तथ्य है कि ग्रामीण समाज सत्ता की प्राथमिकता में कभी नहीं रहा है। विकास की रोशनी शहरों की सीमा से बाहर नहीं निकल पाई है। प्रसंगवश यह कहना भी उचित है कि स्थानीय स्वशासन की पोची व्यवस्था के भरोसे गांवों के कायाकल्प की बात दूर की कौड़ी प्रतीत होती है।
सामयिक परिस्थितियों में सबसे बड़ी प्राथमिकता गांवों के विकास के लिए वहां इंफ्रास्ट्रक्चर का एक मजबूत ढांचा खड़ा करना होनी चाहिये। सरकारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि गांव के लोगों को गांव में ही रोजगार मुहैया करवाया जाए। इसके लिए ग्रामीण क्षेत्रों में घरेलू व कुटीर उद्योगों की स्थापना परम आवश्यक है। उससे भी कहीं ज्यादा जरूरी है गांवों में बिजली, पानी, सड़क, चिकित्सा, परिवहन और शिक्षा की गुणवत्तापूर्ण बुनियादी सुविधाओं की पुख्ता व्यवस्था।
इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि शहरों के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों का आबो-हवा शुद्ध है। ग्रामीण जीवन प्रकृति के करीब है इसलिए वह अधिक सेहतमंद है। कोरोनाकाल ने दुनिया को प्रदूषण मुक्त परिवेश, सादे सरल जीवन, शुद्ध खान पान आदि का महत्त्व बखूबी समझा दिया है। अब शहरी लोग भी सुकून की जिंदगी के लिए गांवों की तरफ झांक रहे हैं।
गांव सबको आकर्षित तो कर रहे हैं मगर सड़क, बिजली, शुद्ध पानी के साथ रोजगार, शिक्षा व चिकित्सा की माकूल व्यवस्था के बिना गांवों का गुलजार रह पाना मुश्किल है। ऐसे लाखों लोग मिल जाएंगे जो परिवार सहित गांवों में रहना तो चाहते हैं मगर स्वास्थ्य सेवाओं व पढ़ाई लिखाई की स्तरीय व्यवस्था के अभाव में मजबूरी में गांव छोड़ते हैं।
यहां उस मानसिकता का जिक्र भी अप्रासंगिक नहीं होगा जिसमें संपन्नता की तरफ बढ़ते ही नई पीढ़ी को अपने पंख फैलाने के लिए गांवों का आकाश छोटा लगने लगता है। सामाजिक ढांचे में इस सोच को बेटी ब्याहने के लिए गांवों की तुलना में शहरों को प्राथमिकता देने की नई प्रवृत्ति के रूप में देखा जा सकता है। राजस्थान के गांवों में मालिकों के दिसावर जाने से बंद पड़ी हजारों हवेलियां आजीविका व अन्य कारणों से विस्थापन की कहानी को बयां कर रही है।
ग्रामीण विकास को गति देने के लिए सबसे जरूरी है कि यह कार्य शासन की सर्वोच्च प्राथमिकता में आए। पूर्ण पारदर्शिता के साथ योजनाबद्ध तरीके से कार्यों का संचालन किया जाए। कार्यकारी एजेंसी की जिम्मेवारी तो तय की ही जाए, उसकी मॉनिटरिंग के लिए एक पूरा तंत्र विकसित हो ताकि संसाधनों का शत-प्रतिशत सदुपयोग निश्चित हो सके।
![गांवों से ही गुजरता है आत्मनिर्भरता का रास्ता : Hemmano Guest Column : मदन गोपाल लढा [2020]](https://i1.wp.com/www.hemmano.com/wp-content/uploads/2020/05/nature-2795521_960_720.jpg?resize=342%2C159&ssl=1)
विगत कुछ दशकों में ग्रामीण समाज के परंपरागत धंधों से नई पीढ़ी का मोहभंग देखने को मिल रहा है। खेती-किसानी, पशुपालन, कुम्भकला, लोहे व लकड़ी से जुड़े हुए कामों को छोड़कर बड़ी तादाद में ग्रामीण युवा शहरों की मिलों में मजदूरी करने जा रहे हैं। असल में ग्रामीण समाज के काम धंधों की सही तरीके से मार्केटिंग नहीं हो पाई है। ऐसे कामों के लिए न तो न्यून ब्याज दर पर आसानी से ऋण उपलब्ध हो पाता है, न ही तकनीकी मार्गदर्शन।
![गांवों से ही गुजरता है आत्मनिर्भरता का रास्ता : Hemmano Guest Column : मदन गोपाल लढा [2020]](https://i1.wp.com/www.hemmano.com/wp-content/uploads/2020/05/pexels-photo-3271160.jpeg?resize=291%2C193&ssl=1)
ग्रामीण उत्पादों के विक्रय को प्रोत्साहन की भी महती दरकार है। लोकल को बढ़ावा देने की अपील पर अगर ईमानदारी से अमल किया जाए तो ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय उत्पादों की खपत को बढ़ाकर रोजगार के साधनों का सृजन किया जा सकता है। कहना न होगा, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने से ही गांवों की तस्वीर बदल सकती है।
(प्रकाशित आलेख में व्यक्त विचार, राय लेखक के निजी हैं। लेखक के विचारों, राय से hemmano.com का कोई सम्बन्ध नहीं है। कोई भी व्याकरण संबंधी त्रुटियां या चूक लेखक की है, hemmano.com इसके लिए किसी तरह से भी जिम्मेदार नहीं है। इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है।)

मदन गोपाल लढ़ा
हिन्दी में पीएच.डी. हैं और हिन्दी पढाते हैं। कविता, कहानी व आलोचना विधा में मौलिक लेखन के साथ अनुवाद प्रिय काम। राजस्थानी व हिंदी में 9 प्रकाशित पुस्तकें। राजस्थान शिक्षा विभाग के लिए पाठ्यपुस्तकों का समूह-सदस्य के रूप में लेखन। एक राष्ट्रीय दैनिक के लोकप्रिय स्तम्भ ‘आओ गांव चले’ के लिए शताधिक गांवों का भ्रमण व आलेख-लेखन। साहित्यिक पत्रकारिता के साथ टीवी व रेडियो से सतत जुड़ाव।
ई-मैल सम्पर्क:madanrajasthani@gmail.com