मीना कुमारी : अजीब दास्तां है ये
मीना कुमारी हिंदी सिनेमा की अप्रतिम अभिनेत्री रही हैं। मीना कुमारी की शख्सियत उनके लिखे से भी बनती है। मीना कुमारी के अभिनय का मुरीद तो पूरा भारत रहा है। गहरी भरी-भरी आंखे, जैसे छलकते दो जाम। संवाद अदायगी का अपना अलहदा अंदाज ही उन्हें विशेष अदाकारा
बनाता है।

मीना कुमारी सिनेमा की अदंर की दुनिया से नहीं आती थी। उन्हें वक्त ने इस चकाचौंध भरी दुनिया में ला पटका था; जिसे माया नगरी कहा जाता है। मया नगरी के अपने उसूल
हैं, अपने अंधेरे अपनी रोशनियां।
मीना कुमारी के जीवन को हमें सिनेमा के अंदर की दुनिया में स्त्री की स्थिति से जोड़कर भी देखना होगा। सिनेमा की दुनिया अजीब तनावों और कशमकश से मिलकर बनी है। सफलता ही उसका अंतिम सत्य है। एक सितारा उगता है अपनी तमाम संभावनाओं के साथ और एक दिन उस सितारे को डूब जाना होता है।

मीना कुमारी भी वह एक सितारा ही थी, रोशनी भरी दुनिया ने उन्हें उजाले बख्शे। मीना की जिंदगी में कमाल अमरोही के आने से जहां उन्हें भावनात्मक सुरक्षा मिली। वहीं कमाल एक उगते हुए सितारे की रोशनी के साथ स्वयं को एडजस्ट नही कर पाए और असुरक्षित होते चले गए। मीना का जीवन यहीं से एक अलग दिशा पकड़ता है। जहां ढेर सारा अकेलापन है और सन्नाटे। लेकिन यहीं से उनकी जिंदगी में गहराई आती है।
जिंदगी का रोमान टूटता है, तिलिस्म आईने की माफिक चटक रहा होता है। लेकिन मीना
का मन स्वयं को तलाश रहा होता है। बेशक सिनेमा हाॅल की टिकट खिड़कियों पर अब
उतनी भी़ड़ ना हो। मगर मीना का अभिनय तो अपने उन्वान पर है।
सच है सोज़ ही इंसान का विस्तार करता है, याद कीजिए साहब बीबी और गुलाम – पाकीजा। लेकिन मीना कुमारी तब तक अधूरी है, जब तक कलम उनके हाथ में नही है।
बानों का जन्म होते ही उन्होंने उसे अनाथ आश्रम की सीढ़ियों पर छोड़ दिया।
स्रोत बताते है, वह डाॅक्टर की फीस देने में नाकाम थे। लेकिन पता नही कैसे इस बच्ची पर उन्हें तरस आ गया। तब इस बच्ची के बदन पर चीटियां रेंग रही थी। महज़बी (मीना) की जड़े टैगोर परिवार से भी जु़ड़ी हैं। वह रिश्ता मां की ओर से था। वह रिश्ता दूर का है।
टैगोर परिवार से सम्बद्ध जसनंदन ने जब परिवार से बाहर हेम सुंदरी से विवाह कर लिया तो उन्हें घर से बहिष्कृत कर दिया गया। जय नंदन की कुछ समय के बाद मृत्यु हो गई और हेम सुंदरी मेरठ आ गई; वहीं उन्होंने नर्स का काम कर लिया।
उर्दू के पत्रकार प्यारेलाल शंकर मेरठी ही से विवाह कर लिया। इस विवाह से दो बेटियाँ हुई, जिनमें से एक प्रभावती मीना कुमारी की माँ थी। प्रभावती मुंबई चली गई, अली बख्श से
शादी करने के कारण इक़बाल बानो हो गई। महज़बी का बचपन बेहद संघर्ष में बीता।
‘संघर्ष’ यहां कोई मुहावरा नहीं है, बल्कि जिंदगी जीने के लिए रोज-रोज घुटते जाना है, पीसते जाना है, इसी वजह से पिता द्वारा महज़बी को घर का बोझ हल्का करने के लिए फिल्म इंडस्ट्री का रास्ता दिखा दिया गया। मीना विजय भट्ट के निर्देशन में पहली बार बाल कलाकार के रूप में ‘लेदरफेस’ में सिनेमाई पर्दे पर आई।
सन् 1946 में ‘बच्चों का खेल’ नामक फिल्म में उन्होंने अपने सहज बाल अभिनय से लोगों का मन मोह लिया। इस फिल्म में महज़बी अथवा बेबी मीना से वह मीना कुमारी बनी। अब फिल्मों में मीना कुमारी का सफर लंबा था।
अजीब दास्तां है ये
मीना कुमारी साहिब बीबी और गुलाम में एक नई रेजं के साथ हमारे सामने प्रकट होती है।
वे दुख जो बरसों-बरस जिंदगी में बस गया था, यह वक्त था स्क्रीन पर उसे साझा करने का।
‘साहब बीवी और गुलाम’ में उनकी आँखें भारतीय स्त्री की प्रतिनिधि आँखें बन जाती है। ‘साहब बीवी और गुलाम’ गुरूदत्त बैनर की फिल्म थी। इस फिल्म ने मीना कुमारी के लिए मकबूलियत के रास्ते खोल दिए।
फिल्म का प्राण है एक झंकार, एक रिदम, एक सघन सा संगीत और ढेर सारी साधना जो
अपने विचार को, अपने थाॅट प्रोसॅस को सहृदय के मन में गहराई तक रोप देती है।
साहेबजान उन हजारों स्त्रियों की तरह है जो गरीबी की मार झेल रही है।जिस जगह, वह है वह उनका अपना चुनाव नहीं है। बल्कि नियति की मार है, जिसने उससे उनका बचपन छीन लिया है। और पटक दिया है उसे ऐसी जगह पर जिसे सभ्यताएं, समाज कोठा कहता है और इन कोठों का इतिहास हजारों साल पुराना है।

पता नहीं सभ्यताएं जब विकसित होती हैं तो अपने आसपास इतना बडा अंधेरा कैसे उत्पन्न कर लेती है अथवा बहुसंख्यक आबादी की जिंदगी को स्याह कर कुछ मुठ्ठी भर लोगों की जिंदगी रोशन करने की शर्त पर ही वह अपना अस्तित्व बरकरार रखती हैं।
यह फिल्म अपने पूरे वृत्तांत में उन्हीं तकलीफ देह सवालों से हमें दो चार कराती है जिनसे समाज देख कर भी टकराना नहीं चाहता अथवा सोचना नही चाहता।
प्रभा खेतान ने अपनी किताब ‘बाजार के बीच बाजार के खिलाफ’ और लुइस ब्राउन की किताब ‘यौन दासियाँ’ गरीबी भूख और जहालत के बीच स्त्रियों की तकलीफ देह और नरकीय जीवन की ओर हमें तथ्यात्मक जानकारी देती है।

देश दुनिया में फैले हुए ह्यूमन ट्रैफिकिंग के तंत्र युद्ध और गरीबी के रूप में ही अपनी खुराक पाते हैं। नरगिस जब साहिब जान बन जाती है तो उसकी आँखों में भी सपने पलने लगते हैं; एक सुरक्षित जीवन के। जिंदगी में प्रेम की उपस्थिति के। मगर जिंदगी हमेशा दगा दे जाती है।
कमाल अमरोही इस बात को गहराई से पकड़ते हैं। कमाल अमरोही की स्क्रिप्ट फिल्म को सच का डॉक्यूमेंट बनाती है। इंसान के रूप में कमाल कैसे भी हो लेकिन एक निर्देशक के रूप में वह बेजोड़ है।
आप मजरुह सुल्तानपुरी के गीतों में गहरा दर्द उभरता हुआ पाएंगे। जो ठिकाने की तलाश में भटकते हुए इंसान के अंदर की पीड़ा को सब्ज करता है और गहरे तक मन को छूता है।
चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो……।
यह गीत महरूह सुल्तानपुरी जैसे उस्ताद शायर की कलम से निकला हुआ बेहतरीन गीत है। यह गीत बचपन से ही बेहद पसंद है, जब भी रेडियो पर बजता अंदर तक बिंध लेता। तब तो इसके मायने भी नहीं पता थे।
”यह रात/ आज रात बचेंगे तो सहर देखेंगे”

गीता का हिस्सा कहें अथवा कहें अंतरा, ‘आज की रात बचेंगे तो सहर देखेंगे’ निचोड़ है या कहें काॅन्क्लूजन है, उस दुख का जो एक नर्तकी के जीवन की त्रासदी है। सुबह की उम्मीद में देहरी पर बैठी हुए एक स्त्री के मनो भावों को आवाज दी है इस पंक्ति ने।
थाडे रहियो ओ बांके यार…….थाडे रहियो…….
इस फिल्म को देखते हुए दर्शक को भी ऐसा भान हो जाता होगा कि वह किसी चमत्कार को अपने सामने घटित होता हुए देख रहा है। संगीत जैसे रेशे-रेशे में बसा हुआ हो।
बोले छमा छम पायल निगोड़ी.. फिर सिर्फ बहुत देर तक घुंघरू की आवाज। एक लंबी सी तान
और लंबी सी सांसें। फिर धीरे-धीरे आवाज उभरती है; ठाड़े रहियो ओ बांके यार रे…
गीत अपने अंतिम पड़ाव तक जाता है तो अंतिम क्षण में बिजली की आवाज कौंधती है।
अन्य गीत ‘मौसम है आशिकाना‘ वह तो काफी सुना ही गया। इस गीत को सुनते हुए वह लगे हुए दिन जैसे सीधे होने लगते हैं। यदि आपके घर में पुराना रामसंस अथवा फिलिप्स का टेप रिकाॅर्डर रखा है और एचएमवी की कैसेट का जखीरा हो तो, आप अवश्य इस अनुभव से गुजरे होंगे। यह कई पीढ़ियों का लोकप्रिय गीत रहा है।
इस फिल्म में लता मंगेशकर, शमशाद बेगम कई सारे आशिक लोगों की आवाज हमेशा के लिए सुरक्षित हो गई।
मोरा साजन सौतन घर जाए कैसे कहूँ……
तबले पर थिरकते उंगालियों की आवाज मन को सुकून देती है। सारंगी का उभरता हुआ स्वर कई बार आपको उदास लंबी उचाट रातों की याद दिलाता है। जहां गांव के किसी कोने पर बजता हुए धीमा सा संगीत आपके कानों में सुरीले पन का एहसास दे जाता था।
यहीं कोई मिल गया था सरे-राह चलते चलते/ वहीं थम के रह गई है मेरी रात ढलते-ढलते – अब गालिब, मीर, अनीस जैसे सब सामने आकर खड़े हो जाते है- जो कही गई ना मुझसे वो जमाना कह रहा है/यह फसाना बन गई है/मेरी बात चलते-चलते/

यह विशुद्ध पोएट्री नहीं तो और क्या है। अंतरा यूं ही कोई मिल गया था…..गीत जैसे सन्नाटे की उंगली पकडकर खड़ा होता है। यूँही कोई मिल गया……. शबे इंतजार आखिर/
फिर एक प्रार्थना होगी कभी मुख्तसर भी । इंसानी की उम्मीद ही नहीं यहां
लो फिर तुमको अब मात मिली / बातें कैसी, घातें क्या?/ चलते रहना आठ पहर! /दिल
सा साथी जब पाया /बेचैनी भी साथ मिली
एक जहीन अदाकारा जैसे किसी मरुस्थल में भटकते हुए अचानक जल की कुछ बूंदों का
एहसास कर ले, यह ग़ज़लें उस चिर प्यास के बीच जल को अंजुरी में भर लेने के एहसास
का नाम है।
मीना जी को पढ़ते हुए और सुनते हुए आप खुद को कहीं दूर ले जाते है, जैसे आपके पैरों में छाले पड़ गए हो और आप जंगल में भटक रहे हैं। कांटो से लहूलुहान अपने पैरों को बिना देखे हुए बढ़े जा रहे हैं-
अपने अंदर महक रहा था प्यार/खुद से बाहर तलाश करते थे
यह जो तलाश है मीना कुमारी के लिए बहुत लंबी थी। वह कहती है –
चांद तन्हा है, आसमां तन्हा
दिल मिला है कहां-कहां तन्हा
बुझ गई आस, छुप गया तारा
थरथराता रहा धुआं तन्हा
जिंदगी क्या इसी को कहते है?
जिस्म तन्हा है और जां तन्हा
हमसफर कोई मिल गया जो कहीं
दोनों चलते रहे तन्हा-तन्हा
राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जाएंगे यह जहां-तन्हा
मीना कुमारी के एहसास अल्फाज एक साथ मिल गए है। अपने कैरियर और अपनी निजी
जिंदगी से जूझते हुए एक स्त्री कितनी अकेली हो जाती है, यह बात उनकी शायरी को पढ़ते हुए आप कदम दर कदम महसूस करेंगे।
तन्हाई में जीते हुए जहां को तन्हा छोड़ जाने का अंदेशा मीना कुमारी को पहले से ही था। शायद ऐसी बहुत कम अदाकारा होंगी जिन पर इतना कुछ लिखा-पढ़ा गया हो।
मीना अपने जीवन, अपनी फिल्में और अपनी शायरी की वजह से एक सिंबल के रूप में उभरती हैं। यह प्रतीक अन्य लोगों से अलहदा है। मीना कुमारी की शायरी और उनके जीवन में कुछ भी ‘बनावटी नहीं है। हर आर्टिफिशिएल चीज के खिलाफ उन्होंने विद्रोह किया।

उन्होंने जीवन में खालिस प्रेम चाहा, जब प्रेम में भी बनावटी पन उन्हें दिखने लगा वह टूट गई। इस फ्रेम को ही उन्होंने अपनी गजलों में जगह दी। यहां वह संपूर्ण थी, उन्हें किसी से कुछ चाहिए नहीं था।
वैसे भी उन्होंने जीवन से बहुत कम चाहा था, मिला बहुत ज्यादा। ऐसी बहुत कम अभिनेत्रियां हैं जिन्हें हिंदी सिनेमा और हिंदी कला जगत ने इतना प्यार दिया हो। मगर धीरे-धीरे इस ख्याति ने उनसे उनका ‘निज’ छीननें की कोशिश की। यह उन्हें बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं था।
यहीं पर आकर वह कमाल अमरोही के खिलाफ हो जाती हैं और शब्दों में अपने जिंदगी के माने तलाशने लगती है-
खुद में महसूस हो रहा है जो
खुद से बाहर है तलाश उसकी
जिंदगी खुद में महसूस हो रही चीजों को खुद से बाहर तलाश करती रहती है। मगर यह कस्तूरी की गंध एक बेचैनी उत्पन्न करती है, और इंसान भटकता रहता हैं। उस खुशबू की तलाश में जो कहीं न कहीं उसी के अंदर ही है। फिर अचानक उसे महसूस होता है कि जिंदगी काफी खर्च कर ली, मगर हासिल तो कुछ ना हुआ।
(प्रकाशित आलेख में व्यक्त विचार, राय लेखक के निजी हैं। लेखक के विचारों, राय से hemmano.com का कोई सम्बन्ध नहीं है। कोई भी व्याकरण संबंधी त्रुटियां या चूक लेखक की है, hemmano.com इसके लिए किसी तरह से भी जिम्मेदार नहीं है।)

विपिन शर्मा
किताबें: मनुष्यता का पक्ष, नई सदी का सिनेमा, आजादी की उत्तर गाथा। नया ज्ञानोदय, पाखी, परीकथा, अकार, कथा क्रम, जनवाणी, आदि में कहानियां एवं लेख प्रकाशित।