कोटा कोचिंग का कारोबार
उम्मीद के प्रसव से ख्वाब का जनन होता है। सपनों में भार के आधिक्य के बावजूद लचक की मौजूदगी काबिलेदीद है। अफसोस कि टूटकर बिखर जाने का हुनर सिर्फ काँच को ही मयस्सर नहीं है। नौनिहाल के सपनों में जुनून और उद्योग बहुतायत में व्याप्त होता है। ऊर्जा को दिशा का साथ मिलने पर सपने हकीकत में तब्दील होने लगते हैं। एक शहर ऐसा है, जो गवाह है लाखों-लाख सपनों का। जिसकी गलियों में कैद है मिन्नतों की गूँज, जिसकी सड़कें बहुत दूर तक जाती हैं। अर्जियों के वजन से लदे उस ठिकाने का नाम कोटा शहर है।

यदि मायानगरी मुम्बई पर माँ लक्ष्मी का हाथ है तो कोटा को भी मायानगरी की संज्ञा दी जा सकती है जिस पर माँ सरस्वती की मेहर बखूबी नजर आती है। इस देश में दसवीं पास करने के बाद छात्र के समक्ष स्ट्रीम के नाम पर ‘थ्री रोडस डाइवर्जड’ होते हैं (माफ करें वे तीनों नहीं चुन सकते): साइंस, कॉमर्स और आर्ट्स।
दिल में उन्माद और माथे पर तिलक लगाए साइंस की धारा चुनने वालों के सामने फिर से दो गली खुल जाती है: गणित और जीव-विज्ञान। यहाँ अधेड़ माँ-बाप का अपने बच्चों के चेहरे में इंजीनियर या डॉक्टर की झलक खोजना पसन्दीदा शगल है। यही कारण है कि कोटा शहर दो लाख बच्चों का हाथ थामे पसर रहा है।
प्रधानमंत्री का मंच से जनसंख्या को हमारी ताकत बताना बाह्य दृष्टिकोण से मुनासिब हो सकता है पर स्पर्धा की मार के नतीजतन आईआईटी दिल्ली के निदेशक वी आर राव यह कहते हुए यथार्थ का चित्रण करते हैं कि “प्रत्येक सीट के लिए हजार अभ्यर्थी हैं। ऐसे में हम चुन नहीं सकते, छाँटने के अलावा कोई चारा शेष नहीं रह जाता और इसलिए परीक्षाएँ इतनी कठिन होती जा रही हैं।” कठिन परीक्षा कठिन तैयारी की माँग करती है और यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं कि कोटा में देश के सबसे उत्कृष्ट संस्थान विद्यमान हैं।

आंकड़ों की माने तो परीक्षा में देश का औसत सफलता दर तीन प्रतिशत है जबकि कोटा का दस प्रतिशत के आस-पास है। कोटा में कोचिंग कुकुरमुत्ते की तरह उगे हैं, महँगे से लेकर सस्ते, सर्वांगीण से लेकर विषय-विशेष तक। कोटा जंक्शन में जैसे ही बच्चा अपनी ट्रॉली-सामान लेकर उतरता है, उसकी जंग वहीं से शुरू हो जाती है। विविध कोचिंग के पोस्टर्स उसे ललचाने लगते हैं। उनपर टॉपर्स की फ़ोटो भगवान के मानिंद लगी होती है, बस अगरबत्ती और माला की कमी महसूस की जा सकती है। पहले दिन आये बच्चों में उमंग की कोई थाह नहीं होती। पोस्टर्स देखकर वे मुस्कुराते हैं और सोचते हैं मेहनत के बदौलत कल शायद मेरी तस्वीर भी इन पर होगी। तस्वीर में टॉपर्स हँस रहे होते हैं।
डेढ़ लाख रुपये का सालाना खर्च किसी मध्यम-वर्गीय परिवार के लिए दाल-भात की कौर तो बिल्कुल भी नहीं है। कोटा के मूल निवासियों की आय का एक मुख्य स्रोत यह भी है कि अपने घर के एक मंजिले में वे रहते हैं और बाकी का पूरा घर बच्चों को भाड़े पर दे देते हैं। वैसे महँगे होस्टल भी हैं जो आधुनिक तकनीक से लैस होते हैं, मसलन छात्र के कमरे के बाहर एक मशीन लगी होती है जिसमें हर बार आने-जाने पर उनको अपनी अंगुली लगानी होती है और उसके घर पर उसका प्रवेश और निकास का संदेश पहुँच जाता है। छात्रों के रहने वाले इलाकों में हर चार कदम पर आपको भोजनालय मिलेंगे जिनके खाने का मेन्यू आपकी भूख को सहलायेगा। अमूमन हर घर के बाहर आपको चार चक्के की गाड़ी खड़ी मिलेगी। सुबह आपकी नींद ‘गाड़ी वाला आया घर से कचड़ा निकाल’ की आवाज से खुल सकती है।
कोटा एक सुनियोजित बसा-बसाया शहर मालूम पड़ता है। हर दो गली के बीच में एक पार्क है, जहाँ झूला या मन्दिर बना होता है। अपने मौसम के लिए मशहूर राजस्थान की चपेट से कोटा कैसे बचता! गर्मी के दिनों में धूप इतनी कड़ी होती है कि बच्चे कभी भी सबसे ऊपर मंजिल का कमरा किराये नहीं लेते। कोचिंग संस्थानों में बड़े कूलर और ए.सी. भी समाजसेवा ही करते हैं। अन्य जिलों की तुलना कोटा में पानी की व्यवस्था बेहद सुधरी हुई है।

शैक्षिक पहलू की बात करें तो यहाँ पर पढ़ने-पढ़ाने वाले शख्स देश के विभिन्न कोनों से आते हैं। कक्षा में ही आपको विविधता की झलक आसानी से मिल जाती है। इसी के फलस्वरूप यह शहर प्रतिभा का अकूट भंडार बन जाता है। शिक्षकों का वेतन काफी अधिक होता है और शायद इसलिए भी उनकी निष्ठा उनके कार्य के प्रति और गाढ़ी हो जाती है। दिन में कभी भी उनसे संपर्क स्थापित किया जा सकता है, वे हमेशा मदद को तत्पर होते हैं। कई बच्चे परीक्षा को लेकर बेहद सजग होते हैं और मेहनत करते हैं। कक्षा में शिक्षक के सवाल दिए जाने के बाद बच्चों में सबसे पहले सही उत्तर देने की होड़ लगी होती है। निश्चित ही शिक्षकों के पढ़ाने का तरीका रचनात्मक पर सटीक होता है तभी यहाँ से इतने अच्छे परिणाम आते हैं। गृहकार्य भी बेहद भारी और ज्यादा मात्रा में मिलता है। दिन भर पढ़ता बच्चा जो रात को खाने के बाद गृहकार्य करने का आदी होता है, कभी यूँ ही कुर्सी पर बैठे कब सो जाता है उसे भी पता भी नहीं होता। लोग अपने घरों को तस्वीर, गुलदस्ते, पेंटिंग से सजाते हैं। इन बच्चों की दीवारों में फॉर्मूले और प्रेरणादायक विचार देख आपको तअज्जुब हो सकता है।
सब कुछ सकारात्मक होता तो आदर्शलोक की कल्पना साक्षात नहीं नजर आती! कई ऐब भी हैं जिनकी चर्चा के बगैर यह लेख पूरा नहीं माना जाएगा। सजगता हर किसी के वश की बात नहीं होती। बच्चों का एक बड़ा जत्था होता है जिन्हें यह पूछने पर ‘पढ़ाई कैसी चल रही है?’ उनका अंतर्मन यह जवाब देता है ‘तेज गति से चल रही है, चलते-चलते मुझसे बहुत आगे निकल गयी है’। कोचिंग में लगातार हो रही परीक्षाएँ उन्हें धीरे-धीरे अंदर से कमजोर करती जाती हैं और एक घड़ी ऐसी आती है जब वह यह स्वीकार लेता है कि यह मेरे पाँव चादर से बाहर जा रहे थे और उन्हें अंदर खींच लेता है।
कुछ ही माता-पिता किसी भी बच्चे की व्यक्तिगत क्षमता के सिद्धांत को समझते हैं। अब जबकि वह बच्चा पढ़ाई से हार चुका होता है, उसके पास काफी वक्त होता है। अब वह अपने जैसों की तलाश करने लगता है। ‘दस के पाँच फ़िल्म’ भरना भी एक बेहद कारगर और मुनाफे वाला काम कोटा के संदर्भ में माना जा सकता है। उन दुकानों की भीड़ कक्षा की भीड़ से कम नहीं होती। साइबर-कैफे में कान में हेडफोन लगाए पबजी खेलते बच्चे आपको किसी भी पहर मिल जाएँगे। यह तो फिर भी क्षम्य है। दुकानों में लड़के सिगरेट नहीं बल्कि अपने माँ-बाप के पसीने को जला रहे होते हैं।

यहाँ बच्चे अक्सर कोचिंग की टी-शर्ट पहने ही घूमते हैं। यहाँ तक कि भिखारी से लेकर मेस के कर्मचारी भी उन्हीं कपड़ों में देखे जा सकते हैं। अधिकता में इस्तेमाल होने वाला यह परिधान कोटा शहर में कोचिंग व्यवस्था की गहराई और पैठ की ताईद करता है। हर कोचिंग का अपना परिधान। हरा, नीला, भूरा, आदि। इनका इंद्रधनुष इसलिए भी मनोहारी नहीं होता क्योंकि वह मौसम-सम्बन्धी एक वैज्ञानिक घटना होता है जो रिफ्लेक्शन, रिफ्रैक्शन और डिस्पर्सन के बाद बनता है। सैलून भी आकर्षित करने की मंसा से प्रकाशित और सुसज्जित होते हैं। समृद्ध घर के बच्चों को लुभाने हेतु सभी दुकानदार ऐसे ही पेंच उपयोग करते हैं।
इंजीनियरिंग में तो फिर भी कम उम्र के बच्चे होते हैं, क्योंकि परीक्षा में मिलने वाले अवसर की संख्या सीमित होती है जबकि मेडिकल के क्षेत्र में स्नातक कर चुके छात्र भी यहाँ ज्ञानार्जन के लिए आते हैं। वे आम बच्चों की तुलना में रोटी और चावल ज्यादा खाते हैं। यदि आपको सड़क पर कोई बड़ी गाड़ी गुजरते हुए दिखती है तो इस बात की प्रायिकता बहुत अधिक है कि वह गाड़ी किसी शिक्षक की होगी। कई शिक्षक खुद आईआईटी या एम्स से पास आउट होते हैं और उन्होंने अपनी इच्छा से पढ़ाने का रास्ता चुना होता है।
कहा जाता है कि कोटा कोचिंग की दोस्ती जिंदगी भर साथ नहीं चलती क्योंकि पढ़ाई के दौरान यारी-दोस्ती की तरफ ध्यान देने हेतु वक़्त नहीं मिलता। वहीं स्कूल और कॉलेज की दोस्ती ताजिंदगी आपके साथ रहती है। कई स्कूल के बेहद घनिष्ठ मित्र यहाँ एहसास-ए-कमतरी का शिकार हो जाते हैं। कुछ की उत्कृष्ट संस्थानों में नामांकन पाने की लालसा वक़्त के साथ गहरी होती जाती है वहीं कई यह सोचते हैं कि किसी तरह कोई कामचलाऊ कॉलेज मिल जाए।
कोचिंग संस्कृति यह भी सिखाती है कि यदि आपने अपने किताब का एक सवाल छोड़ा तो मान लें कि आप दस रैंक पीछे हो गए। गोवर्धन पर्वत में भी शायद इतना भार नहीं रहा होगा तभी कृष्ण उसके दबाव को अपनी अंगुली से झेल पाए। कोटा में कई बड़े सिनेमा हॉल और मॉल भी हैं। वहाँ भी छात्र यत्र-तत्र-सर्वत्र घूमते मिल जाएंगे पर उनके कपड़े नए, बालों में कंघी, और बदन से इत्र की खुशबू आएगी।

दो लाख से ऊपर बच्चे तो कोटा में ही हैं और उच्च कॉलेजों में स्थान बेहद सीमित हैं। जो सफल नहीं होता वो खुद को विफल मानने लगता है, यह मानवीय रुझान ही तो है। सपनों के टूटने का दर्द हर किसी को बर्दाश्त नहीं होता। कुछ टूटने के बाद बिखर जाते हैं, कुछ निखर जाते हैं। कोटा में आत्महत्या की बढ़ती संख्या बेशक चिंता का विषय है। इस सम्बंध में प्रेरणादायी सेशन भी बहुत प्रभावी नहीं साबित हो रहे। जरूरी है कि माता-पिता भी उनसे लगातार इस बारे में बात करते रहें और उनका हरसम्भव समर्थन और सम्मान करें।
अभी हाल में ही कोटा शहर फिर से सुर्खियों में था। नहीं, नहीं अपने परिणाम की वजह से नहीं! त्रासदी के दौर से गुजर रहे विश्व की समस्याएँ बहुत ही बड़ी और व्यापक हैं। लॉकडाउन के कारण लोग जहाँ थे वहीं फँस गए। इसी तरह कोटा में भी करीब पचास हजार बच्चे उपस्थित थे। फिर उन्होंने सरकार से गुहार लगाने की मुहिम शुरू की। विभिन्न राज्य सरकारों ने बात को संज्ञान में लेते हुए उन्हें निकालने का यथोचित इंतजाम किया। लोगों का एक हुजूम इस बात का विरोध यह कहकर करने लगा कि बच्चे ट्विटर पर हैं, सक्षम घरों से हैं तो उनकी बात सुनी जा रही है। मजदूरों का कोई नहीं है। पहले तो उनलोगों के शब्दों के प्रयोग पर ही भौहें तन सकती हैं। उनके इस बात को कहने की शैली ऐसी थी कि जब मजदूरों को नहीं पहुँचा रहे तो उन बच्चों को क्यों पहुँचाया? जबकि इसे ऐसे होना था कि इनकी तरह सबको पहुँचाया जाता।
आज जब मजदूरों की मौत, उनकी वेदना, उनकी यात्रा, उनकी आत्मनिर्भरता की खबरें सुनने को मिल रही हैं तो सच में वर्गों के बीच की लकीर उभर कर सामने आ जाती है। यह सच में धनाढ्य लोगों का गरीबों के बनिस्बत विशेषाधिकार ही तो है। कोटा की तरफ आशा की नजरों से इसलिए भी देखा जा सकता है क्योंकि युवाओं का शक्तिपुंज यहाँ आम दिनों में विचरण करता है। उन्हें ही तो देश की कमान आगे सम्भालनी होगी और गरीबों के हित में कार्य करने होंगे। उन्हें रज़ा मौरान्वी के शेर की पीड़ा को अंतस में महसूस करना होगा –
“ज़िंदगी अब इस क़दर सफ़्फ़ाक हो जाएगी क्या
भूक ही मज़दूर की ख़ूराक हो जाएगी क्या!”
प्रतिभा पलायन पर जिस दिन मजदूरों की व्यथा का प्रभाव भारी पड़ेगा उस दिन यह देश खुशी से थोड़ा और हरा हो जाएगा। हर किसी की बेहतरी की प्रार्थना चंद शब्दों में:
“धुंधले जीवन के कोनों को रोशनी की कोख मिले,
और दुआओं के चोखे को मंजूरी की छौंक मिले!”
(प्रकाशित आलेख में व्यक्त विचार, राय लेखक के निजी हैं। लेखक के विचारों, राय से hemmano.com का कोई सम्बन्ध नहीं है। कोई भी व्याकरण संबंधी त्रुटियां या चूक लेखक की है, hemmano.com इसके लिए किसी तरह से भी जिम्मेदार नहीं है। इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है।)

सरिया (झारखण्ड) के रहने वाले अमित कुमार 2018 के झारखण्ड शिक्षा बोर्ड टॉपर्स में से एक है। अमित ने देश के प्रतिष्ठित संस्थान नेतरहाट विद्यालय से मैट्रिक परीक्षा देते हुए 97.40% के साथ झारखण्ड राज्य में दूसरा स्थान प्राप्त किया। फिलहाल कोटा में आईआईटी की तैयारी कर रहे हैं। साहित्य में रूचि रखते हैं, संजीदा लेखक है।
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