काफ़िरों की नमाज़

इस फिल्म को देखने का मन भी करे तो पहले नीचे लिखी बातों पर गौर कर लीजिएगा :-
1. आपमें बहुत सारा धैर्य हो इस बात की ये फिल्म आपसे पुरजोर माँग करती है ।
2. आप जजमेंटल होकर ये फिल्म कभी नहीं देख पाओगे । क्या सही , क्या गलत इन फैसलों को फिल्म से अलग रखें और सिर्फ निर्माता के नजरिये से फिल्म देखें।
3. बार – बार ये फिल्म जोर से ( मतलब बहुत ही जोर से ) धर्म, नैतिकता, सैना और देशभक्ति जैसे सेंसिटिव मुद्दों पर वार करती है तो इन मुद्दों को लेकर अति भावुक लोग ये फिल्म ना ही देखें तो बेहतर है ।
कहानी की शुरुवात कश्मीर की गलियों से होती है जहाँ एक सैनिक को स्थानीय लोगों के द्वारा मार दिया जाता है और ठीक इसी समय पहला सवाल आपके सामने फेंक कर निर्माता आगे बढ़ जाता है।

मुख्य कहानी अब शुरू होती है। एक आदमी है जिसका सैना से कोर्ट मार्शल हुआ है मतलब जिसको सैना से निकाल दिया गया है। इसी आदमी का इंटरव्यू लेने एक लेखक अपने कैमरापर्सन के साथ इसके निवास स्थान पहुँचता है जो इसकी जिंदगी पर शायद एक किताब लिखना चाहता है।

एक और आदमी है जो रात में चाय बेचता है और दिन में म्यूजिक बनाता है । ये भी इन सबको चाय पिलाने सैनिक के निवास स्थान पर आ जाता है । नब्बे से पिच्यान्वे प्रतिशत फिल्म इन्ही चार किरदारों की बातचीत और सैनिक के निवास स्थान के हॉल के साथ फ़िल्माई गई है । मैं बार – बार ‘ सैनिक का निवास स्थान ‘ क्यों लिख रहा हूँ उसका ‘ घर ‘ क्यों नहीं ये आप फिल्म देखने का साहस करेंगे तो जान जाएंगे।
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फिल्म के पहले उनचास मिनटों में एक बोझिल सी फीलिंग है परन्तु पचासवाँ मिनट आपको हिला कर रख देगा । उसके बाद जैसे – जैसे आप आगे बढ़ेंगे कई बार सिहर उठेंगे । फिल्म के डायलॉग्स फिल्म की आत्मा है पर उतने ही विवादस्पद भी तो मैं डायलॉग राइटर जितना साहस नहीं दिखा पाऊँगा सिर्फ दो डायलॉग्स जो विवादस्पद नहीं है पर जानदार है यहाँ लिख देता हूँ :-
1• जब रूह ही काफ़िर हो जाय तो जिस्म कब तक ख़ुदाई पर जियेगा।
2• उस वक़्त उसकी आँखे इतनी जोर से चीख रही थी के अगर कोई उन्हें ध्यान से देखे तो बहरा हो जाय।
फिल्म का सेकंड हाफ थोड़ा फ़ास्ट है और ऐसी जगह कहानी को ख़त्म करता है जिसकी कल्पना दर्शक को नहीं होती।
जैसा कि कुछ को तो मैं ऊपर भी बता चुका हूँ कुछ बिंदु और जोड़ने है इसलिए फिर से लिख रहा हूँ ; फिल्म राम मंदिर , बाबरी मस्ज़िद , नैतिकता , देशभक्ति , गाँधी जी और पोर्न जैसे संवेदनशील मुद्दों को छू कर गुजरती है इसीलिए सेंसर बोर्ड ने शायद इसे किसी भी तरह का प्रमाणपत्र देने से मना कर दिया और फिल्म के रिलीज पर रोक लगा दी।

इसके बाद फिल्म के निर्देशक राम रमेश शर्मा और भार्गव सैकिया ने हिम्मत करके फिल्म को यूट्यूब पर रिलीज कर दिया और ये मेरा सैभाग्य रहा की 2016 में रिलीज हुई ये फिल्म 2018 में मेरे यूट्यूब सजेशन में आ टपकी। उसके बाद से आज तक हर साल एक बार तो ये फिल्म मैंने जरूर देखी ही है।
फिल्म का म्यूजिक सुन कर आप निर्देशक की म्यूजिक की समझ की दाद देंगे । गाना – ‘झलकियाँ’ फिल्म की कहानी को ठीक से समझाता है तो ‘ये रात मोनालिसा’ रोमांच पैदा करता है। जहाँ तक फिल्म के लूज़ पॉइंट का सवाल है वो है सेकण्ड हाफ के बाद इसका एकदम से गति पकड़ कर अंत को प्राप्त करना।
प्रत्येक व्यक्ति जिसे अपनी तार्किक क्षमता को चैलेंज करना है उसे जरूर कम से कम एक बार इस फिल्म के बहाव के साथ बह कर देखना चाहिए । फिल्म की तर्ज़ पर ही मैं भी इस पोस्ट के सेकण्ड हाफ को जल्दी से समाप्त करता हूँ और फिल्म देखने या ना देखने का फैसला आप पर छोड़ता हूँ ।
(प्रकाशित आलेख में व्यक्त विचार, राय लेखक के निजी हैं। लेखक के विचारों, राय से hemmano.com का कोई सम्बन्ध नहीं है। कोई भी व्याकरण संबंधी त्रुटियां या चूक लेखक की है, hemmano.com इसके लिए किसी तरह से भी जिम्मेदार नहीं है।)

विद्यार्थी हैं, समसामयिक विषयों पर आलेख लिखते हैं, किंडल पर एक कहानी संग्रह (जाओ… माफ़ किया) प्रकाशित हो चुका है।
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